लोकेंद्र चतुर्वेदी (गुरु जी): इस संसार की आधारस्वरूपा, सभी की रक्षा करने वाली जो आदिशक्ति जगदम्बा श्रेष्ठ मोक्ष एवं भोग प्रदान करने वाली हैं, वे ही संसार में मोहपाश में बांधने वाली भी हैं। उन्हीं जगदम्बा ने सागर में निमग्न भगवान विष्णु की रक्षा के लिए बरगद के पत्ते के रूप में उपस्थित होकर उस महासमुद्र में उन्हें धारण किया। वे ही देवी जगदम्बा चेतनारूपा हैं। उनसे रहित सम्पूर्ण जगत शव के समान प्रतीत होता है, उनसे मुक्त होकर यह जगत वैसे ही चेतनायुक्त प्रतीत होता है, जैसे की यन्त्री की चेतना से यन्त्र चेतनायुक्त प्रतीत होता है। वे ही देवी जगदम्बा नित्य अपनी इच्छा से लीलापूर्वक देवाधिदेव भगवान शिव के रूप में होकर सदा अपने में ही विहार करती हैं। इसलिए संसार में वे दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी के नाम से जानी जाती हैं। मंदभाग्य वाला व्यक्ति भी उनके नाम के श्रेष्ठ अक्षरों का स्मरण कर सौभाग्य प्राप्त करता है, इसलिए वे परमेश्वरी के नाम से जानी जाती हैं। वेदज्ञों द्वारा वे मंदभाग्य वालों का परित्राण करने वाली कही जाती हैं। वे ही पराविद्या हैं और प्राणियों को चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) देनेवाली तथा विरोधियों का नाश करने वाली हैं। जो उनकी भक्ति और पूजा में संलग्न है, वे शीघ्र ही उत्तम दर्शन प्राप्त कर लेते हैं। जिनकी पुण्यमयी बुद्धि उन देवी की भक्ति में लगी रहती है, उनके लिए वह सुलभ हैं। उनका पुण्यदायक दर्शन दूसरे के लिए अत्यंत दुर्लभ है। देवी जगदम्बा के नवरात्रि पूजा का विधान स्वयंदेवी द्वारा विरुपण किया गया है। सर्वप्रथम इस पूजा का प्रारम्भ भगवान श्रीराम द्वारा त्रेतायुग में रावण एवं असुरों के संहार हेतु किया गया। श्रीमद्देवी भागवत पुराण में महादेव एवं नारद के संवाद के रूप में इसका वर्णन किया गया है। पुराणानुसार ब्रह्माजी द्वारा श्रीराम के संग्राम विजय हेतु देवी जगदम्बा की स्तुति होती है। तब श्रीदेवी जागृत हो गयीं। देवी के प्रबुद्ध हो जाने पर वे लोक पितामह ब्रह्मा सभी देवताओं के साथ हाथ जोड़कर अपने मनोवांछित की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करने लगे। ब्रह्माजी बोले-देवी! सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अत्यंत भीषण संग्राम में श्रीराम की विजय तथा राक्षसों के नाश के लिए हमने असमय में आपको जगाया है। महादेवी! जब तक जगत शत्रु दशानन अपने पुत्र तथा बन्धु बांधवों के साथ युद्ध में नहीं मारा जायेगा, तब तक श्रीराम के विजय की इच्छा वाले हमलोग आपकी पूजा करते रहेंगे। यदि आप प्रसन्न हैं, तो प्रतिदिन हमलोगों की पूजा ग्रहण कर महाशत्रुपुराण का विनाश करती रहिये। श्री देवी जगदम्बा बोलीं-महाबली एवं पराक्रमी वीर कुम्भकर्ण अपने भयंकर सैनिकों के साथ आज ही युद्ध में मारा जायेगा। इस कृष्णपक्ष की शुद्ध नवमी से आरम्भ होकर जब तक शुक्लपक्ष की नवमी आयेगी, तब तक प्रत्येक दिन युद्धक्षेत्र में राक्षस मारे जाएंगे। अमावस्या तिथि की रात्रि में मेघनाद के मारे जाने पर संतप्त हृदय रावण भी युद्ध के लिए भगवान श्रीराम के पास आ जायेगा। देवी बोलीं देवान्तक आदि महाबली और पराक्रमी वीर राक्षसों को साथ लेकर क्रोध के वशीभूत होकर रावण रणभूमि में आयेगा। तत्पश्चात युद्धभूमि में देवान्तक आदि राक्षस वीरों के मारे जाने पर वह महावीर रावण स्वयं युद्ध करेगा। तब श्रीराम और रावण का ऐसा महायुद्ध होगा, जैसा न किसी ने देखा है और न ही कहीं सुना गया है। उसमें भी आश्विन शुक्ल पक्ष सप्तमी से आरम्भ होकर नवमी तिथि तक उन दोनों योद्धाओं में भयंकर संग्राम होगा। युद्ध में श्रीरामचंद्र की विजय की आकांक्षा वाले आप लोगों को उस शुक्ल पक्ष की सप्तमी से प्रारम्भ करके नवमीं तिथि पर्यंत सर्वप्रथम मिट्टी की प्रतिमा में विशुद्ध पूजनोपचारों से मेरी विधिवत पूजा करनी चाहिए तथा वेद पुराणोक्त स्त्रोतों से भक्तिपूर्वक मेरा स्तवन करना चाहिए। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में मूल नक्षत्र से युक्त सप्तमी तिथि को श्रीराम के धनुष-बाण का विधिवत पूजन करना चाहिए। अष्टमी को प्रतिमा में पूजित होने पर मैं अष्टमी तथा नवमी के उत्तम संधिकाल में दुरात्मा व दुष्ट रावण के सिर से रणभूमि में आ जाऊंगी। तदनन्तर उस संधि के क्षण में विधि-विधान से विपुल उपचारों से बारम्बार मेरी पूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात नवमी तिथि को भी विविध प्रकार के उपचारों से पूजित होने पर मैं अपराह्न में युद्ध क्षेत्र में उस वीर रावण का संहार करूंगी। दशमी तिथि (विजयादशमी) में प्रातः ही मेरी पूजा कर महोत्सवपूर्वक नदियों में मेरी मिट्टी की मूर्ति विसर्जित करनी चाहिए। इस प्रकार मेरी पूजा महोत्सव करके उस दुरात्मा रावण के मारे जाने पर आप लोगों को शांति मिलेगी। श्री देवी जी बोलीं-इस प्रकार इस असमय के उपस्थित होने पर मेरी संतुष्टि के लिए तीनों लोकों के निवासियों को प्रत्येक वर्ष भगवती का महोत्सव संपादित करना चाहिए। तीनों लोकों में जो लोग आर्द्रा नक्षत्र युक्त नवमी तिथि को बिल्व वृक्ष में मेरी पूजा करके भक्तिपूर्वक मेरा प्रबोधन (जागृति) करते हुए शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि तक मेरा पूजन करेंगे, उनके ऊपर प्रसन्न होकर मैं उनके सभी मनोरथ पूर्ण करूंगी। मेरे अनुग्रह से उसका कोई शत्रु नहीं होता, उसके बंधु-बांधवों का उससे वियोग नहीं होता औऱ उसे किसी प्रकार का दुःख तथा दारिद्रय भी नहीं होता। मेरी कृपा से उसे इस लोक तथा परलोक के मनोवांछित पदार्थ तथा अन्य सभी प्रकार की सम्पदाओं की प्राप्ति होती है। भक्तिपूर्वक मेरी (देवी की) उपासना करने वाले मनुष्यों के पुत्र आय़ु तथा धन-धान्य आदि की प्रतिदिन वृद्धि होगी तथा उन्हें अचल लक्ष्मी की प्राप्ति भी होगी, व्याधियां नहीं होंगी, कष्टकर ग्रह उन्हें पीड़ित नहीं कर सकते और उनकी अकाल मृत्यु नहीं होगी। राजा, डाकू तथा सिंह, बाघ आदि जन्तुओं से वे कभी भयभीत नहीं होंगे। मेरी उपासना करने वालों के शत्रु उनके अधीन हो जाएंगे और उनके समक्ष नष्ट हो जाएंगे। युद्ध में सदा उनकी विजय होगी। इस प्रकार देवी भागवत पुराणानुसार आश्विन शुक्ल पक्ष में नवरात्रि व्रत करना चाहिए, सामर्थ्यानुसार नवमी तक व्रत करके दशमी में व्रत का पारण करना चाहिए या महाअष्टमी के दिन पुत्र की कामना से उपवास करके नवमी में पारण करना चाहिए। मात्र अष्टमी तिथि को पुत्रवान मनुष्य को उपवास नहीं करना चाहिए। यह नवरात्रि व्रत सम्पूर्ण व्रतों में श्रेष्ठ कहा गया है, जो स्त्री अथवा पुरुष भक्ति में तत्पर होकर नवरात्रि व्रत पूजन करता है, उसका देवी भागवत की कृपा प्रसाद से मनोरथ कभी विफल नहीं होता है।